राष्ट्रिय शायर कहलाते ज़वेरचंद मेघाणी (1896-1947) की रचनाओं के बिना गुजराती लोकसंस्कृति का अभ्यास अधूरा है। उनकी रग रग में सौराष्ट्र की मिट्टी की सौंधी सुगंध बसी हुई थी। ग्रामीण जीवन का ऐसा चित्रण उनकी अनगिनत कविताओं, नवलकथा और लघुवार्ताओं में और लोकसाहित्य के उनके द्वारा किये गए संग्रह और विवेचन में पाया जाता है, की वे गुजरात का सांस्कृतिक इतिहास जानने में एक अनिवार्य अंग हैं। जनसेवा और स्वतन्त्रता संग्राम में भी उन्होंने अमूल्य योगदान दिया।
प्रस्तुत अनुवादित रचना में हमें उनकी ऊर्जावान वाणी की एक ज़लक मिलती है, जिसमें उस युग के जनमनोभाव को शब्दों में व्यक्त किया गया है।
विदेशी हाथों से छुड़ाकर मातृभूमि का गौरव फिर पाने भारत के हज़ारों सपूत न्योछावर हो गए, उन्हें बल दिया एक सादगी भरे तिरंगे ने, जिसमे न थी कोई रजवाड़े की भभक, न ही सेनाबल की हुंकार थी। था तो बस धैर्य और स्नेह, जिसके बल हर वो माँ, हर वो पत्नी ने अपने सर्वस्व को देश के नाम कर दिया। उसे लहराता देखने की मोहनी ऐसी लगी, अन्य भक्ति को परे कर शीश धरने का उत्साह कोटि कोटि हृदयों में उत्पन्न हुआ। इसी ध्वज से कवि प्रेममय बिनती करते हैं, हर बलिदान का साक्षी, स्वराज्य का वह संतरी उन्हें शक्ति देता रहे।
आज स्वराज्य के सत्तरवें वर्ष में स्वतंत्र राष्ट्र के गौरवशाली ध्वज का वंदन करते समय उसी तिरंगे के पूर्वानुगामी चरखे वाले तिरंगे ध्वज के दीवानों का स्मरण करना समयोचित है, जिनके हम कृतज्ञ हैं। आशा है मूल गुजराती काव्य का भाषांतर करने का यह विनम्र प्रयास उन भावनाओं को आप तक पहुँचा पायेगा।
तेरे कितने ही प्यारोंने अमोल रक्त बहाया
पुत्रवियोगी माताओंने नयन से नीर बहाया
हे ध्वज! अजर अमर रहना
बढ़ आकाश में छाये रहना
तेरे मस्तक नहीं लिखित है गरुड़ सी मगरूरी
तेरे पर नहीं अंकित कहीं समशेर-खंजर-छुरी
हे ध्वज! दीन विहग सा
तुज उर पर चरखा प्यारा
अखिल जगत पर गूंजती नहीं त्रिशूलवती जलरानी
महाराज्य का मद प्रबोधती नहीं तुज गर्व निशानी
हे ध्वज! धीर और संतोषी
ह्रदय तेरे माँ वृद्धा बसती
नहीं किनखाब मखमल रेशम की पताका तेरी
नहीं रंगों भरी चमकदमक या सुवर्णतार की ज़री
हे ध्वज! सादगी खादी की लिए
मन कोटि कोटि तूने मोहे
परभक्षी भूदल-नौदल का नहीं तेरा कोई हुँकार
वनवासी मृग पर भय फैलाता न करे कोई शिकार
हे ध्वज! उड़ना लहराता
स्नेह समीर से सहलाता
सप्त सिंधु की अंजलि लिए समीर तुज पर फहराए
नवखंड के आशिष लिए सागर लहरें टकराएँ
हे ध्वज! जग यह थका हारा
तू एक आशा दीप है प्यारा
नील गगन से हाथ बढ़ाकर विश्वनिमंत्रण देता
पीड़ितजन से बंधूभाव का शुभसंदेश कहेता
हे ध्वज! बुलाना जग को
सारी प्रजा के लगें मेले
नील गगन से रंग पी बना उन्नत हरित तुज नैन
अरुण के केसरिया रंग अंजन कर दूजा जागेगा रैन
हे ध्वज! शशि ने है तीजा सींचा
धवल त्रिलोचन तेरा साचा
तीन नेत्रों भर तूने निहारे तुज गौरव के रखवाले
श्रीफल जैसे टकरा फूटे कई शीश ऐसे मतवाले
हे ध्वज! साक्षी बने रहना
मूक त्याग हमें रहा सहना
कोमल बाल किशोर युवा वृद्ध तेरे काज बढे आये
नर नारी निर्धन या धनी सब भेद हैं भुलाये
हे ध्वज! साक्षी बने रहना
रहा रुधिर की धार को बहना
कोई माता की खाली कोख का आज बना तू बेटा
भाल के कुमकुम मिटे जिनके, उनको तू ही बल देता
हे ध्वज! साक्षी बने रहना
सहस्त्र समर्पित का कहना
तुझको गोद ले सो रहे देखे बालक प्यारे
तेरे गीत की मस्ती में भूख प्यास बिसारे
हे ध्वज! मोहनी तेरी कैसी लगी
फ़िदा हुए तुझ पर कई जोगी
अब तक की होगी हमने अन्य की भी भक्ति
रक्तपिपासु राजाओं के तले लगाई शक्ति
हे ध्वज! नमकहलाली की
थी वह रीत गरज पुरानी
पंथ पंथ कईं की पूजा की, हरेक की ध्वजा निराली
उस पूजन पर शीश गँवाए : हाय कथा वह काली
हे ध्वज! अब वह युग है बीता
अब सकल वंदन के तुम देवता
तुम सच्चे अम कल्पतरुवर, मुक्तिफल तुज पर प्यारे
तेरी शीत सुगंध यहीं, न किसी और स्वर्ग के किनारे
हे ध्वज! युग युग तुम खिलना
सुगंध धरा पर पसारे रखना
राष्ट्रदेव के मंदिर कलश पर गहरे नाद तू लहराये
सर्वधर्म के उस रक्षक को संत सिपाही नम जाए
हे ध्वज! आज जो न भी माने
कल तुज रज शीश धरेंगे हम मानें
अष्ट प्रहर हुँकार देता जागृत उत्साही रहना
सावध रहना, पहरा देना, निद्रा न हमें आने देना
हे ध्वज! स्वराज्य के तुम रक्षक
रहे विजय ध्वनि तेरा अखंड सतत
मूल - ज़वेरचंद मेघाणी
गुजराती से हिंदी अनुवाद - भैरवी पराग आशर