
चहु ओर छाई हरियाली,
टप टप थिरकत जल की बूंदें,
पत्तों की हथेली पर देत ताली
शीतल पवन झुला रहा झूला,
झूल रही बाला भोली भाली,
ठेक देत तृण भरी धरती पर,
फिर झूले ऊंचे, हँसे, उड़े निराली
भीग गया तन और अंतर मन,
नाच उठी अल्हड़ मतवाली
पनिहारी,चलत जो जा रही पनघट,
थम कर, खो गयीं अँखियाँ दो काली
श्रावण की प्रिय घटा ऐसी छाई,
मन का हर संशय हो रहा खाली
जा, गयी आँगन वह सांवरे के,
लता रही अब घेरे वृक्ष की डाली
-BhairaviParag
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