एक विनम्र प्रयास -
कवि श्री 'सुन्दरम् ' द्वारा सन १९५८ में रचित गुजराती कविता 'चरणचिह्न' का भावानुवाद
रूप का मैं रसिक तो रहा पर तृषा मेरी अरूप के लिए
भज रहा मैं अविरत मूर्त है जो कभी मिले अमूर्त इसलिए
शब्दों को पुकार पुकार मैं नित्य ढूंढ रहा अशब्द ही
सदा चलता रहता मिल जाये कदा मुझे स्थिरता कहीं
रे आओ आओ मुझ पास ऐ उस पार के निवासी
धन्य हो वो एक पल बस तेरी मिल जाए हे प्रवासी
सिमटी रहे भले सकल तेरी कला, मेरी बस याचना
एक दृष्टि तेरी मुझ ओर हो जाए, यही है प्रार्थना
यह जीवन-मृत्यु की इस जग में बनी सुन्दर फुलवारी
यहाँ पुष्प और कंटक के द्वंद्व की नित्य अद्भुत यारी
यहाँ पृथ्वी पर देवों का अमृत घट कभी दिखा ना
ना ही यहाँ देखी कभी स्वर्गपुष्प की चिरंजीव माला
मैं तो रात रात भर तारे अगिनत देखता जागूँ
बस इस बेला में चरणचिह्न ही तेरे मैं मांगूँ
(मूल कविता 'सुन्दरम्' के काव्यसंग्रह प्रियंका से)
-BhairaviParag
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